जयन्ती पर याद किये गये प्रमुख कवि  केदारनाथ अग्रवाल

‘लंदन में बिक आया नेता हाथ कटा कर आया’

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जयन्ती पर याद किये गये प्रमुख कवि  केदारनाथ अग्रवाल

बस्ती। शनिवार को प्रेमचन्द साहित्य एवं जन कल्याण संस्थान द्वारा हिन्दी के प्रमुख कवि  केदारनाथ अग्रवाल के जयंती अवसर पर कलेक्टेªट परिसर में संस्थान के अध्यक्ष वरिष्ठ कवि सत्येन्द्रनाथ मतवाला की अध्यक्षता और डा. रामकृष्ण लाल ‘जगमग’ के संचालन में संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

मुख्य अतिथि डा. वी.के. वर्मा ने कहा कि ‘लंदन में बिक आया नेता हाथ कटा कर आया’ लिखने वाले कवि केदारनाथ अग्रवाल जन-गण-मन को मानवता का स्वाद चखाने वाले अमर कवि थे।  वे मार्क्सवादी दर्शन से खासे प्रभावित थे।  इसे उन्होंने जीवन में भी अपनाया और सृजन में भी,  वह किसी भी तरह के शोषण के विरोधी थे।

वरिष्ठ कवि डा. रामकृष्ण लाल ‘जगमग’  ने कहा कि साम्यवाद को जीवन का आधार मानकर केदारनाथ अग्रवाल ने जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदनाओं को अपनी कविताओं में मुखरित किया।  कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है। उनकी रचना ‘आज नदी बिलकुल उदास थी, सोई थी अपने पानी में,उसके दर्पण पर-बादल का वस्त्र पड़ा था, मैंने उसको नहीं जगाया,दबे पांव घर वापस आया‘ जैसी रचनायें युगों तक प्रासंगिक रहेंगी।

अध्यक्षता करते हुये वरिष्ठ कवि सत्येन्द्रनाथ ‘मतवाला’ ने कहा कि 1 अप्रैल 1911 को उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कमासिन गाँव में जन्मे केदारनाथ  प्रकृति और मानवता को उकेरने वाले कवि थे।  पिता हनुमान प्रसाद अग्रवाल स्वयं एक कवि थे. ‘मधुरिम’ नाम से उनका एक काव्य संकलन प्रकाशित भी हुआ था।  केदार जी को काव्य-सृजन की प्रेरणा परिवार से ही मिली थी. ग्रामीण परिवेश में रहने के चलते केदारनाथ अग्रवाल के मन में सामुदायिक संस्कार और प्रकृति के प्रति लगाव पैदा हुआ, जो जीवन भर उनकी कविताओं में झलकता रहा। ‘मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा,लोहे जैसा- तपते देखा-गलते देखा-ढलते देखा, मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा’ जैसी रचनायें अजर अमर है।

कार्यक्रम में वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम प्रकाश शर्मा, बी.के. मिश्र, ओम प्रकाशनाथ मिश्र आदि ने कहा कि केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-यात्रा का आरंभ साल 1930 से माना जा सकता है, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने लिखने की शुरुआत कर दी थी। केदारनाथ अग्रवाल का काव्य-संग्रह ‘युग की गंगा’ देश के आजाद होने से पहले ही मार्च, 1947 में प्रकाशित हुआ था. हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए यह संग्रह एक बहुमूल्य दस्तावेज है।

कार्यक्रम के दूसरे चरण में मूर्ख दिवस पर डा. रामकृष्ण लाल ‘जगमग’ के संचालन में पं. चन्द्रबली मिश्र, राजेन्द्र सिंह राही, राघवेन्द्र शुक्ल, मो. सामईन फारूकी, दीपक सिंह ‘प्रेमी’ आदि ने रचनाओं के माध्यम से समय के सत्य को व्यक्त किया। मुख्य रूप से  सुधाकर त्रिपाठी, प्रदीप कुमार श्रीवास्तव, सुनील कुमार पाठक, दीनानाथ, विजयनाथ तिवारी, अजमत अली सिद्दीकी आदि उपस्थित रहे। 

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