महुआ डाबर की जलती चिता से उठती सदी की पुकार: 5 हजार शहीदों की कुर्बानी, इतिहास अब भी मौन

बस्ती, यूपी..
“सर इतने दिए कि सर हो गया मैदान ए वतन,
तुम पर हम फूल चढ़ाते हैं शहीदाने वतन।”
महुआ डाबर संग्रहालय द्वारा आयोजित 'महुआ डाबर स्मरण दिवस' पर आज उस वीरगाथा को श्रद्धांजलि दी गई, जिसे कभी इतिहास की किताबों ने जगह देने से परहेज़ किया। कार्यक्रम में संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. शाह आलम राना ने स्वतंत्रता संग्राम के ज्ञात और अज्ञात शहीदों को नमन करते हुए कहा कि “महुआ डाबर की राख में दबा इतिहास अब राष्ट्रीय स्मारक के रूप में पुनर्जीवन की बाट जोह रहा है।”
1857 की क्रांति के दौरान 3 जुलाई को अंग्रेजों ने करीब 5,000 निर्दोष भारतीयों की हत्या कर महुआ डाबर गांव को तीन ओर से घेरकर आग के हवाले कर दिया था। सिर्फ जान नहीं ली गई, गांव का नाम-ओ-निशान तक मिटा दिया गया। यहां छींट कपड़े की अंतरराष्ट्रीय मंडी थी, पर अंग्रेजों ने इसे ‘ग़ैर चिरागी’ यानी अंधकार में धकेल दिया।
स्मरण सभा में डॉ. संजीव कुमार मौर्या, फकीर मोहम्मद, नासिर खान, यशवंत आदि ने विचार रखे। रमजान खान, मुम्ताज अली, ताहिर अली, वसीम खान, अशफाक, आलम खान, मोहम्मद गुलाम, नजर आलम सहित कई लोगों ने श्रद्धांजलि अर्पित की। कार्यक्रम का संचालन बुद्ध विक्रम सेन ने किया।
इतिहास की सबसे बड़ी साजिश:
क्रूर ब्रिटिश हुकूमत ने न केवल महुआ डाबर को जलाया, बल्कि 50 किलोमीटर दूर ‘गौर’ क्षेत्र में नया महुआ डाबर गांव बसा कर सच्चाई को दफन करने की कोशिश की। इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया और असली महुआ डाबर को भुला दिया गया।
प्रमाण मिटा नहीं पाए:
2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग द्वारा खुदाई में ईंटों की दीवारें, कुएं, जले लकड़ी, प्राचीन औज़ार, सिक्के और नालियां मिलीं, जो उस समृद्ध गांव की गवाही आज भी देते हैं।
महुआ डाबर संग्रहालय का योगदान:
डॉ. शाह आलम राना के नेतृत्व में 1999 में संग्रहालय की स्थापना हुई। उनके प्रयास से यह क्रांति स्थल अब उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के 'स्वतंत्रता संग्राम सर्किट' में शामिल हो चुका है। 10 जून 2025 से यहां प्रशासन द्वारा शस्त्र सलामी शुरू की गई है।
डॉ. राना ने कहा:
"जालियांवाला बाग को ब्रिटेन ने शर्मनाक कहा, अफसोस जताया, पर महुआ डाबर पर आज भी चुप्पी क्यों? जब 5000 शहीदों की लाशें राख में बदल दी गईं, तब दुनिया खामोश क्यों रही?"
एक राष्ट्रीय स्मारक की दरकार:
महुआ डाबर की राख अब भी एक पुकार बनकर उठ रही है – यह शहादत राष्ट्रीय स्मारक की पात्र है, ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें कि भारत की आज़ादी सिर्फ दिल्ली, मेरठ या लखनऊ तक सीमित नहीं थी, बल्कि बस्ती की ज़मीन भी आज़ादी की चिंगारी से धधकी थी।